Mental Health Treatment के जरूरत मुताबिक डॉक्टर भी नहीं है उपलब्ध
नई दिल्ली। Mental Health Treatment : देश में रोजाना होने वाले आत्महत्या (suicide) के मामले इन दिनों आप को चौंका रहे होंगे। छात्रों को सीए बनाने वाली फैक्ट्री कोटा से कुछ दिनों के अंतराल पर आत्महत्या की खबरें विचलित करने वाली साबित हो रही है। पिछले कुछ वर्षों में कोरोना के कारण जिस तरह की समस्याएं सामने आई हैं, उसने तनाव और अवसाद के ग्राफ को अचानक से बढा दिया है। कुलमिलाकर देखा जाए तो इस समय मनोचिकित्सा क्षेत्र सुर्खियों मेें है और मनोचिकित्सक हाई डिमांड पर हैं।
ऐसे में यह जानना जरूरी है कि मेंटल हेल्थ (Mental Health Treatment) की इन चुनौतियों से निपटने में हमारा हेल्थ सिस्टम कितना सक्षम है। हालांकि, कुछ समय से मेंटल हेल्थ को लेकर जिस तरह की चुनौतियां पैदा हुई है, उसने सरकार और सिस्टम का ध्यान इस ओर जरूरी खींचा है लेकिन मेंटल हेल्थ की चुनौतियों से निपटने के लिए हमारे पास जो मौजूदा संसाधन और शक्ति है, वह तनाव पैदा करने वाले साबित हो रहे हैं। हैरानी इस बात को जानकर होगी कि हम मानसिक समस्याओं के उपचार के लिए डॉक्टर और मरीज के बीच के जरूरी अनुपात को भी पूरा नहीं कर पा रहे हैं। जो एक चिंता की बात है और इन कमियों को पूरा करने के लिए तेजी से कदम उठाने की जरूरत है।
प्रति एक लाख आबादी पर 0.75 मनोचिकित्सक
देश में मनोचिकित्सकों (psychologist and psychiatrist ) की भारी कमी है। डॉक्टर और मरीजों के बीच जो अनुपात होना चाहिए उसमें हम काफी पीछे हैं। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर विभाग-संबंधित संसदीय स्थायी समिति के अनुसार, देश में लगभग 9,000 मनोचिकित्सक हैं। भारत में लगभग 27,000 मनोचिकित्सकों की कमी है, यह देखते हुए एक संसदीय समिति ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) से देश भर के मेडिकल कॉलेजों में पोस्ट-ग्रेजुएट और समकक्ष सीटें बढ़ाने का आग्रह किया है। सांसद भुवनेश्वर कलिता की अध्यक्षता वाली एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख किया है कि भारत में प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक ही उपलब्ध हैं। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तय मानक प्रति 1,00,000 लोगों पर तीन मनोचिकित्सकों उपलब्ध होने की वकालत करते हैं।
मानक पूरे करने में लग सकते हैं 27 साल
सांसद भुवनेश्वर ललिता अध्यक्षा में गठित एक समिति ने संसद में जो रिपोर्ट पेश किए हैं, उसके मुताबिक देश में मानसिक स्वास्थ्य से जुडी मौजूदा व्यवस्था (Mental Health Treatment) और इसे मजबूत करने की जो भी आवश्यक पहल की जा रही है, अगर मौजूदा गति से हम चलते रहे तो हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों को पूरा करने में 27 साल लग सकते हैं। अब तक, मनोचिकित्सा में लगभग 1,000 पोस्ट-ग्रेजुएट (psychologist and psychiatrist ) हर साल कार्यबल में शामिल होते हैं।
और बढ सकती है मनोचिकित्सकों की कमी
पूरे विश्व की जनसंख्या पर मनोचिकित्सकों (psychologist and psychiatrist ) की उपलब्धता पर अगर हम बात करें तो इसका औसत प्रति एक लाख आबादी पर 1.7 है। समिति की रिपोर्ट मेें कहा गया है कि लगभग 2,840 मान्यता प्राप्त नैदानिक मनोवैज्ञानिक हैं (जो मुख्य रूप से टॉक थेरेपी करते हैं)। रिपोर्ट में हालिया राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में की गई एक परिवर्तन पर भी चिंता व्यक्त की गई है, जो देश में मनोचिकित्सकों की और भी ज्यादा कमी का कारण बन सकता है। रिपोर्ट में यह कहा गया है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में एम.फिल पाठ्यक्रमों को बंद करने की सिफारिश की गई है और कई संस्थान इस उपाय का पालन कर रहे हैं, जिससे आगे भी देश में मनोवैज्ञानिकों की कमी से समस्या पैदा हो सकती है।
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कितना गहरा है देश में मानसिक स्वास्थ्य संकट
एनएमएचएस 2015-16 की रिपोर्ट में बताया गया है कि लगभग 150 मिलियन भारतीय किसी न किसी प्रकार की मानसिक बीमारी से प्रभावित हैं। जबकि 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों की मानसिक अस्वस्थ्यता 10.6 प्रतिशत रही है। सर्वेक्षण की गई आबादी में मानसिक विकारों का जीवनकाल प्रसार 13.7 प्रतिशत बताया गया है। यहां मानसिक अस्वस्थता का तात्पर्य किसी मानसिक या मनोवैज्ञानिक स्थिति के परिणामस्वरूप शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों प्रकार की गिरावट की घटनाओं से है। इस सर्वेक्षण में सामान्य मानसिक विकारों, गंभीर मानसिक विकारों और मादक द्रव्यों के सेवन की समस्याओं के आपसी संबंध की ओर भी इशारा किया गया था। जिससे मध्यम आयु वर्ग की कामकाजी आबादी विशेष रूप से प्रभावित हुई थी। इसके अलावा, सर्वेक्षण में पाया गया कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े उपचार (Mental Health Treatment) का अंतर बहुत बड़ा था और इसका कारण उपलब्धता की कमी से लेकर उपचार की सामर्थ्य तक था। मौजूदा संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत में मानसिक विकारों के इलाज में विभिन्न विकारों के लिए उपचार का अंतर 70 से 92 प्रतिशत के बीच है।
एनएमएचएस-2 के कामों तेजी की जरूरत
कोविड-19 महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य और मनो-सामाजिक कल्याण के लिए जोखिम बढ़ा दिया है। यह सभी के लिए तनाव के लिए जिम्मेदार कारणों को बढाने वाला साबित हो रहा है। समिति ने सिफारिश की है कि एनएमएचएस-2, जो 2025 में पूरा होने वाला है। इसके कार्य में तेजी लाई जानी चाहिए ताकि महामारी के प्रभाव का सटीक पता लगाया जा सके।
असहज कर रहे हैं आत्महत्या के आंकडे
समिति की रिपोर्ट में देश में आत्महत्या की बढ़ती दर पर भी चिंता व्यक्त की गई है। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ‘भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या (suicide)’ 2021 रिपोर्ट के अनुसार, आत्महत्या की दर बढ़कर प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर चिंताजनक रूप से 12 हो गई है। ऐसे में समिति ने स्वास्थ्य मंत्रालय से राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति के माध्यम से निगरानी तंत्र को मजबूत करने की वकालत की है। ताकि, इससे आत्महत्या के कारणों पर नज़र रखने और रोकथाम की रणनीतियां तैयार करने से जुडी रणनीतियों को तैयार करने में मदद मिल सके। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि “मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या को और अधिक बढाया जाना चाहिए और मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की क्षमता को बढ़ाने के लिए अल्पकालिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए।
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स्कूल-कॉलेजों से निकल सकता है हल
मनोचिकित्सक और आयुर्वेदिक विशेषज्ञ डॉ. आरपी पाराशर के मुताबिक देश में मानसिक समस्याओं और मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत करने की पहल की मजबूत नींव स्कूल और कॉलेजों से रखी जा सकती है। मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होने के पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं। लोगों को खुद से तनाव प्रबंधन करने आना चाहिए। हम अपने नई पीढी को इसके लिए तैयार कर सकते हैं। अगर हम स्कूलों और कॉलेजों से ही बच्चों को इस दिशा में तैयार करना शुरू करें तो यही बच्चे वयस्क होकर जब अपने सामाजिक, निजी और पेशेवर जिंदगी के तनाव को आसानी से प्रबंधित कर सकेंगे। उन्होंने कहा कि तनाव और अवसाद के लिए आजकल बदल चुकी सामाजिक और पारिवारिक संरचना भी काफी हदतक जिम्मेदार है।
पहले परिवार बडा होता था और उसमें कम्यूनिकेशन आसान होती थी लेकिन जब से परिवार छोटे (नैनो फैमिली कल्चर) होने लगे हैं, तब से तनाव और अवसाद को प्रबंधित करने की क्षमता भी कम होती चली गई है। एक समय तक छोटा परिवार खुशियां हजार स्लोगन सही लगता था लेकिन आज यही नैनो फैमली समस्या की प्रमुख वजह बनती जा रही है। लोगों में जागरूकता बढानी होगी ताकि, वह मनोविकार और मानसिक बीमारी के बीच के अंतर को समझ सकें और समय पर अपना नियमित उपचार कराने के लिए कदम उठाएं। अवसादग्रस्त या निराश लोगों से लोग कटने लगते हैं लेकिन इसके बजाए ऐसे लोगों को सामाजिक और पारिवारिक सपोर्ट देकर सामान्य किया जा सकता है।
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