नए अध्ययन में विशेषज्ञों ने किया खुलासा
Autoimmune Diseases : ऑटोइम्यून बीमारियों के मरीजों में इम्यूनोसप्रेसिव एजेंटों (immunosuppressive agents) के उपयोग से फ्रैक्चर यानि ऑस्टियोपोरोसिस (osteoporosis) का खतरा बढता है। यह खुलासा ताइवान के विशेषज्ञों ने अपने ताजा अध्ययन के हवाले से किया है।
कई अध्ययनों में ऑटोइम्यून बीमारियों (Autoimmune Diseases) वाले मरीजों में इम्यूनोसप्रसिव एजेंटों (immunosuppressive agents) और फ्रैक्चर जोखिम के संबंध में पहले भी अध्ययन किए गए हैं। इस बीमारी से पीडित मरीजों में इम्यूनोसप्रेसिव एजेंटों और फ्रैक्चर जोखिम के बीच के संबंध के underlying mechanism जटिल हैं।
इसे पूरी तरह से समझना मुश्किल है। हालांकि, ऐसा माना जाता है कि ये दवाएं bone metabolism को प्रभावित कर सकती है और ऑस्टियोपोरोसिस के खतरे को बढा सकती है। ऑस्टियोपोरोसिस एक ऐसी स्थिति है, जिसमें बोन डेनसिटी (bone density) कम हो जाती है। जिससे हड्डिया कमजोर होकर जरा सा झटका लगते ही टूट सकती है।
Autoimmune Diseases को लेकर क्या कहता है नया अध्ययन
बायोमेडिसिन (biomedicine) में प्रकाशित एक नए अध्ययन से यह पता चला है कि ऑटोइम्यून बीमारियों वाले मरीजों में इम्यूनोसप्रेसिव एजेंटों के लंबे समय तक उपयोग करने से विशेष रूप से कूल्हे (hip) और इसके आसपास मौजूद हड्डियों में फ्रैक्चर का खतरा बढ सकता है।
शोधकर्ताओं ने ताइवान (taiwan) के राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा अनुसंधान डेटाबेस (National Health Insurance Research Database) के डेटा का उपयोग करके एक retrospective स्टडी की है। जिसमें वर्ष 2000 से 2014 के बीच सोरियाटिक गठिया (psoriatic arthritis), रूमेटीइड गठिया (rheumatoid arthritis), एंकिलोजिंग स्पॉन्डिलाइटिस (Ankylosing Spondylitis) और सिस्टमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस (Systemic Lupus Erythematosus) सहित अन्य दूसरे ऑटोइम्यून बीमारियों (Autoimmune Diseases) से पीडित मरीजों को अध्ययन में शामिल किया गया था।
इसी अवधि के दौरान उसी डेटाबेस से ऐसे मरीजों के control group को भी चुना गया, जिन्हें ऑटोइम्यून बीमारी नहीं थी। ऑटोइम्यून बीमारियों वाले मरीजों को इम्यूनोसप्रेसिव एजेंटों के उपयोग के आधार पर दो Sub-Groups में विभाजित कर दिया गया।
चौंकाने वाला साबित हो रहा है अध्ययन का निष्कर्ष
अध्ययन में यह पाया गया कि ऑटोइम्यून बीमारियों वाले मरीजों में फ्रैक्चर का जोखिम किसी दूसरी बीमारियों के मरीजों की तुलना में 1.14 गुना अधिक है।
इम्यूनोसप्रेसेंट Sub-Group के मरीजों में Non-immunosuppressant subgroup के रोगियों की तुलना में फ्रैक्चर का खतरा अधिक था।
कंधे केक फ्रैक्चर के लिए adjusted substatement risk ratio 1.27 (95%सीआई = 1.01-1.58, स्पाइन फ्रैक्चर के लिए 1.43 (95% सीआई = 1.26-1.62) कलाई के फ्रैक्चर के लिए 0.95 (95% सीआई =0.75-1.22) और कूल्हे के फ्रैक्चर के लिए 1.67(95% सीआई =1.38-2.03) पाया गया है।
इस अध्ययन के नतीजों का विश्लेषण करने के बाद विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुंचे कि इम्यूनोसप्रेसिव के उपयोग से ऑटोइम्यून बीमारी वाले मरीजों में फ्रैक्चर का जोखिम बढ सकता है। इसका विशेष प्रभाव कूल्हों में देखने को मिल सकता है। अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक इन बीमारियों का उपचार करने वाले चिकित्सकों इस संभावित जोखिम के बारे में पता होना चाहिए।
चिकित्सकों को ऐसे मरीजों को गिरने के खतरे और इससे होने वाले नुकसान को मरीजों को विशेषतौर पर बताना चाहिए। शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि ऑटोइम्यून बीमारियों में इम्यूनोसप्रेसेंट के उपयोग और फ्रैक्चर को रोकने के लिए optimal strategies को निर्धारित करने के लिए आगे और भी अध्ययन करने की जरूरत है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इम्यूनोसप्रेसेंट के उपयोग के साथ जरूरी एहतिहात भी बरती जाए।
हड्डियों को मजबूत करने वाले आहार लें
इम्यूनोसप्रेसेंट (immunosuppressive agents) का उपयोग करने वाले ऑटोइम्यून बीमारियों से पीडित मरीजों को हड्डियों की मजबूती की दिशा में विशेष ध्यान देना चाहिए। ऐसे मरीजों को विटामिन डी, कैलशियम, विटामिन बी 12 युक्त आहारों को विशेषतौर से सेवन करना चाहिए।
ऐसे मरीजों को समय-समय पर बोन डेनसिटी टेस्ट करवाते रहना चाहिए। अगर रिपोर्ट में किसी तरह की गडबडी सामने आए तो तत्काल अपने रूमेटोलॉजिस्ट से संपर्क करनी चाहिए। ऑटोइम्यून मरीजों को विशेषतौर से गिरने से बचना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले अपने चप्पल और जूतों की ग्रिप का ध्यान रखें। इसके साथ ही बाथरूम आदि में सपोर्ट भी लगवाकर रखें।